heart touching Mirza galib shayari Archives - everydayshayari.com https://everydayshayari.com/tag/heart-touching-mirza-galib-shayari/ Journey of Emotions Sun, 22 Dec 2024 14:16:01 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8.1 https://everydayshayari.com/wp-content/uploads/2024/01/cropped-Brown-Modern-Wood-Logo-3-32x32.png heart touching Mirza galib shayari Archives - everydayshayari.com https://everydayshayari.com/tag/heart-touching-mirza-galib-shayari/ 32 32 Heart Touching Mirza Ghalib Shayari 2025 https://everydayshayari.com/mirza-ghalib-shayari/ https://everydayshayari.com/mirza-ghalib-shayari/#respond Thu, 28 Nov 2024 07:55:48 +0000 https://everydayshayari.com/?p=1645 आज हम आप सभी के साथ शेयर करने जा रहे हैं बहुत ही खूबसूरत और…

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आज हम आप सभी के साथ शेयर करने जा रहे हैं बहुत ही खूबसूरत और बहुत अलग अलग इमोशंस से भारी Mirza Ghalib Shayari अगर आप लोगो को शायरी सुनना या पढ़ना काफी पसंद है तो आप जरूर मिर्जा गालिब के बारे में जानते होंगे जिन्हों हम सभी के लिए या हमारी फीलिंग को बया कृति बहुत सी शायरी हमें दी है जो आज हम आप सभी के साथ शेयर करना चाहते हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब की बहुत सुन्दर Sad Shayari, Emotional Shayari और दर्द भरी शायरी

Mirza Ghalib Shayari  ने हम सभी के दिल की बातों को अपनी शायरी की मदद से इतने दर्द से व्यक्त किया है कि हम ना चाहते हुए भी शायरी में ये खो जाते हैं क्योंकि कोई हमें कोई कहानी सुना रहा है और अपनी भावनाओं को बहुत ही सरलता से व्यक्त कर रहा हो. मिर्ज़ा ग़ालिब को ये लिखने की कुशलता के कारण एक शायर का दरजा दिया गया था। Mirza Ghalib Shayari और तो और मिर्ज़ा गालिब को बहुत सी भाषाओ का ज्ञान था जो शायरी और कविताओ को लिखने में बहुत मददगार थी।

Heart Touching Mirza Ghalib Shayari in Hindi

दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे

हमको फ़रियाद करनी आती है
आप सुनते नहीं तो क्या कीजे

इन बुतों को ख़ुदा से क्या मतलब
तौबा तौबा ख़ुदा ख़ुदा कीजे

रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी
पहले दिल दर्द आशना कीजे

अर्ज़-ए-शोख़ी निशात-ए-आलम है
हुस्न को और ख़ुदनुमा कीजे

दुश्मनी हो चुकी बक़द्र-ए-वफ़ा
अब हक़-ए-दोस्ती अदा कीजे

मौत आती नहीं कहीं, ग़ालिब
कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे

यूं हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

आज फिर इस दिल में बेक़रारी है
सीना रोए ज़ख्म-ऐ-कारी है

फिर हुए नहीं गवाह-ऐ-इश्क़ तलब 
अश्क़-बारी का हुक्म ज़ारी है

बे-खुदा , बे-सबब नहीं , ग़ालिब
कुछ तो है जिससे पर्दादारी है

दुःख दे कर सवाल करते हो
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो

फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक किसे
ज़ौक-ए-नज़ारा-ए-ज़माल कहाँ

दिल तो दिल वो दिमाग भी ना रहा
शोर-ए-सौदा-ए-खत्त-ओ-खाल कहाँ

थी वो इक शख्स की तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर ना जाते, अगर ‘ऐतबार’ होता

तेरी नाज़ुकी से जाना के बँधा था ‘एहेद-ए-बोधा’
कभी तू ना तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

Mirza Ghalib ki Shayari 2025

देख कर पूछ लिया हाल मेरा
चलो कुछ तो ख्याल करते हो

शहर-ऐ-दिल में उदासियाँ कैसी 
यह भी मुझसे सवाल करते हो

मरना चाहे तो मर नहीं सकते
तुम भी जिना मुहाल करते हो

अब किस किस की मिसाल दू मैं तुम को
हर सितम बे-मिसाल करते हो

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें 
चल निकलते जो में पिए होते 

क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो 
काश के तुम मेरे लिए होते 

मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी या रब कई दिए होते 

आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते

सादगी पर उस के मर जाने की  हसरत दिल में है 
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है 

देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा 
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है

मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब 
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना 

मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के मकान अपना

ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ‘तू क्या है’
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

‘ग़ालिब’-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता

वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ
को शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल कहाँ

Mirza Ghalib Shayari in Hindi

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है

हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘ग़ालिब; की आबरू क्या है

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ‘तू क्या है’
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों

हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों

वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों

मिर्जा गालिब की दर्द भरी शायरी

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है

हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘ग़ालिब; की आबरू क्या है

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ‘तू क्या है’
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है

हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘ग़ालिब; की आबरू क्या है

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये
हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

ग़म अगरचे जान-गुलिस हैं , पे कहाँ बचें के दिल हैं
ग़म-ए-इश्क़ गर ना होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

Best Mirza Ghalib Shayari

रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर
देखिए कब दिन फिरें हम्माम के

रग-ए-संग से टपकता, वो लहू की फिर ना थमता
जिसे गम समझ रहे हो, ये अगर शरार होता

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक

दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब‌
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन‌
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक

परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक

गम-ए-हस्ती का ‘असद’ कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ कीजे, न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते, जो ना बादा-ख्वार होता

Mirza Ghalib Shayari on Love

हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं
ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए ‘असद’
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तेहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में
शब हाए हिज्र को भी रखूँगा हिसाब में

ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में

क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ वो जो लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

लाखों लगाव एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव एक बिगड़ना इताब में

ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

उसे कौन देख सकता के यगान हैं वो यक्ता
जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता

Conclusion
हम आशा करते हैं कि हमारी आज की heart touching Mirza galib shayari और ग़ालिब की शायरी हिंदी में 2 line आप सभी को बहुत पसंद आएगी। ये शायरी आपके दिल को अंदर तक छू लेगी और आपके दर्द में आपका बहुत काम आएगा। Everydayshayari│ ऐसी और भी शायरी उद्धरण, शुभकामनाएं और टैगलाइन पढ़ने के लिए हमारे साथ रहें और अपने दोस्तों के साथ अपनी मनपसंद शायरी साझा करें।

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